रविवार, 9 मार्च 2014

"सिसकती चाँदनी"
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भोर की आहट पर
ओसारे के बाहर पाँव रखा ---
दूब पर जमी ओस 
चुभकर 
नसों में उतर गई ---
चाँदनी 
सिसकती रही 
शायद सारी रात 
इस अमावस में ।
     ---रामजी गिरि
          राँझा और "खाप"
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एक और हीर फना हुई आज,

उसके अपने ही थे इस बार भी ,

कल "खाप" की पंचायत जो थी।

ओ बे-गैरत राँझे ----

नहीं सुनता अब भी तेरा खुदा ,

या "इनके " खुदा कोई और है ?

     ---रामजी गिरि